जैन धर्म की स्थापना- प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को जाता है
जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक- महावीर स्वामी ( बचपन का नाम वर्धमान)
इसमें कुल 24 तीर्थंकर हुए थे .
23 वें तीर्थंकर पारसनाथ जी हैं जन्म 250 ईसा पूर्व
इनके अनुयायी निरग्रंथ कहलाए

पार्श्वनाथ जी को 100 वर्ष की आयु में सम्मेद पर्वत, छोटा नागपुर पठार, जिला गिरिडीह झारखंड में निर्माण प्राप्त हुआ
23वें तीर्थंकर ने चार महाव्रत- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह
अंतिम महाव्रत ब्रह्मचर्य (महावीर स्वामी द्वारा दिया गया)
इन पांच महाव्रत उनको अणुव्रत भी कहते।
महावीर स्वामी जोकि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर हुए
महावीर स्वामी जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक थे इन्हें निगंठनाथ पुत्र भी कहा जाता है।
इनका बचपन का नाम वर्धमान था और इनका जन्म 540 ईसा पूर्व कुंडग्राम (वज्जि संघ का गणराज्य) एवं निर्वाण प्राप्ति 468 ईसा पूर्व 72 वर्ष की आयु में राजगृह पावापुरी, बिहार में हुआ था।
पिता का नाम सिद्धार्थ जो कि ज्ञात्रिक कुल के थे
माता का नाम त्रिशला ( लिछवि राजकुमारी थी,  राजा चेटक की बहन थी )
पत्नी का नाम यशोदा
पुत्री का नाम प्रियदर्शना ( का विवाह जमाली से हुआ जोकि महावीर स्वामी के प्रथम शिष्य हुए)
इन्होंने 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग किया था केवल्य प्राप्ति रिजुपालिका नदी जीझिक (बिहार) जुंभिक ग्राम में साल वृक्ष के नीचे हुई थी केवल्य प्राप्ति के बाद केवलिन कहलाए। केवल्य का अर्थ है पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने वाला।
 इसके पश्चात केवलिन/ जिन /विजेता/ अर्ह (योग्य) एवं निरग्रंथ ( बंधन रहित) कहलाए।
अचारांग सूत्र जैन धर्म से संबंधित है।
महावीर स्वामी ने चार काशाय- क्रोध, मान, माया, लोभ बताए हैं।
यह संसार छह द्रव्यों -जीव, पुद्गल( भौतिक तत्व), धर्म( गति),  अधर्म( स्थिति), आकाश, काल
महावीर स्वामी ने कर्म फल से मुक्ति पाने हेतु तीन रत्न दिए है-1. सम्यक श्रद्धा/ दर्शन, 2.सम्यक ज्ञान, 3. सम्यक आचरण /चरित्र।
जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति
आश्रव से आशय- कर्म का जीवन की ओर प्रवाह होना
संवर- प्रवाह जीवन की ओर रुक जाना।
निर्जरा-पहले से विद्यमान कर्म का क्षय होना।
बंधन-कर्म का जीव के साथ संयुक्त होना।
बिछुआ हेतु पंच महाव्रत दिए।
गृहस्थ हेतु- पंच अणुव्रत।
जैन धर्म अनीश्वरवादी है, वेदों की आलोचना करता है, पुनर्जन्म तथा कर्म में विश्वास रखता है।
मोक्ष पश्चात मनुष्य- अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुख की प्राप्ति कर लेता है। यह सभी अनंत चतुष्टय कहलाते हैं।
स्यादवाद या अनेकांतवाद या सप्तभंगिनीय या ज्ञान की सापेक्षता के सिद्धांत - किसी भी बात के 7 पहलू होते हैं जिसे स्यादवाद कहते हैं।
गणधर- महावीर जैन संघ के 11 अनुयाई गणधर कहलाए, महावीर स्वामी के पश्चात् केवल एक अनुयाई सुधरमन जीवित रहा।

जैन धर्म की विशेषताएं -
1 देवताओं का अस्तित्व स्वीकारना
2 जिन को सर्वोच्च मानते हैं
3 संसार की वास्तविकता को स्वीकार करते हैं
4 ईश्वर सृष्टि करता नहीं
5 वर्ण व्यवस्था की निंदा नहीं की गई है
6 पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास रखते हैं
7 अहिंसा पर बल देते हैं, कृषि एवं युद्ध प्रतिबंध को समर्थन करते हैं।
सल्लेखना- उपवास द्वारा शरीर का त्याग करना।
चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा सल्लेखना विधि से ही देह त्याग किया गया था श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में उन्होंने देह त्याग किया था
जैन धर्म का विभाजन- 1. तेरापंथी/ श्वेतांबर- संस्थापक स्थलबाहू , 2. समैया या दिगंबर- संस्थपक भद्रबाहु ( कल्पसुत्र ग्रंथ लिखा)
तेरहपंथी- विभाजित होकर (i)मूर्तिपूजा आस्था वाले (ii) स्थानकवासी- जो आगे चलकर- (a)बाईसपंथी व (b) तेरहपंथी में बट गए।
जैन धर्म का दक्षिण भारत में प्रचार राष्ट्रकूट के काल में हुआ
उत्तर भारत में प्रमुख केंद्र उज्जैन व मथुरा थे
22 वें तीर्थंकर अरिष्टनेमी को कृष्ण के समकालीन माना गया है।
प्रमुख त्योहार - पंचकल्याणक, महावीर जयंती, पर्यूषण, ऋषि पंचमी,
जैन संगीति/ सभा
1. प्रथम जैन संगीति -चंद्रगुप्त मौर्य के समय ( 300 ईसा पूर्व ) -स्थान पाटलिपुत्र - स्थूलभद्र व संभूति विजय के नेतृत्व में हुई  जैन धर्म के प्रधान भाग 12 अंकों का संपादन हुआ
 श्वेतांबर व दिगंबर में जैन धर्म का विभाजन हुआ
2. द्वितीय जैन संगीति - 512  ईस्वी में - वल्लभी ( गुजरात ) में - देवर्धी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में हुई।
ग्रंथों का संकलन कर लिपिबद्ध किया गया।
प्रथम ऋषभदेव ( आदिनाथ ) संज्ञान - प्रतीक वृषभ या सांड
16वें तीर्थंकर शांतिनाथ- प्रतीक हिरण
23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ - प्रतीक सर्पफण ( जन्म 250 ईसा पूर्व में काशी के राजा अश्वसेन के यहां हुआ था माता का नाम वामा पत्नी का नाम प्रभावती, प्रथम अनुयाई इनकी पत्नी थी, श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुमति इन्होंने दी।
24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी- प्रतीक सिंह
ऋग्वेद में केवल 2 तीर्थंकरों का उल्लेख है
1. प्रथम ऋषभदेव 2. अरिष्ठनेमी ( 22वें तीर्थंकर)
 ऋषभदेव को नारायण का अवतार बताया गया - विष्णु व भागवत पुराण में
जैन संघ के सदस्य 4 वर्गों में विभाजित थे-
भिक्षु, 2. भिक्षुणी, 3. श्रावक, 4. श्राविका
मौलिक सिद्धांत 14 प्राचीन ग्रंथों में है इन्हें पूर्व कहा जाता है।
जैन मठ इन्हें बसादी या बसदिस कहा जाता है।
गंधर्व ( शाब्दिक अर्थ- विद्यालयों का प्रधान)- महावीर के 11 प्रमुख शिष्य
प्रथम शिष्य मखली घोषाल
प्रमुख शिष्य उपाली ( गृहस्थ था)
सर्वप्रथम महावीर का विरोध किया -शिष्य जमाली(इनका दामाद)
बोलचाल की भाषा प्राकृत
ग्रंथ की भाषा अर्धमगधी
वेदवाद - विरोधी
सांख्य दर्शन- समर्थक
महावीर के बाद संघ का अध्यक्ष सुधर्मन
संरक्षक राज वंश-  गंग, कदंब, चालुक्य एवं राष्ट्रकूट शासकों द्वारा।
समर्थक राजा- उदयन, बिंबिसार, अजातशत्रु, चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार व खारवेल, राष्ट्रकूट नरेश अमोघ वर्ष ( सन्यास ग्रहण किया, रत्नमालिका ग्रंथ की रचना की)
महावीर स्वामी की पहली भिक्षुणी- दधिवाहन की पुत्री चंदना थी।
पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुमति दी जबकि महावीर स्वामी ने नग्न रहने की अनुमति प्रदान की।
प्रारंभिक जैन अवशेष - खारवेल के हाथी गुफा/ खंडगिरि/ उदयगिरी- भुवनेश्वर (उड़ीसा) से प्राप्त।